चाणक्य नीति : सफल इच्छाएँ नहीं प्रयास

चाणक्य नीति : सफल इच्छाएँ नहीं प्रयास होते हैं

चाणक्य नीति के अनुसार सफल इच्छाएँ नहीं प्रयास होते हैं       

            चाणक्य नीति के अनुसार  केवल चाहने से कुछ नहीं होता अर्थनीति की भाषा में कहा जाए तो सभी इच्छाएँ बाजार में माँग नहीं बन पातीं। केवल वे इच्छाएँ ही माँग में परिवर्तित हो पाती हैं, जिनके लिए संसाधन उपलब्ध होते हैं या जुटाए जाते हैं और उन संसाधनों को उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए लगाने की तत्परता होती है। इसी प्रकार, परिणाम कभी भी हमारी इच्छा पर आधारित नहीं होते। परिणाम हमारे द्वारा किए गए प्रयासों, प्रयुक्त संसाधनों और वातावरण के साथ अंतःक्रिया का संयुक्त परिणाम होते हैं।

    चाणक्य नीति के अनुसार हमें कभी भी यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि परिणाम हमारी इच्छानुसार ही होंगे। हमें निस्संदेह समय-समय पर अपेक्षा से न्यून परिणामों या विपरीत परिणामों का भी सामना करना पड़ता है। यही नहीं, कभी-कभी हमारी अपेक्षा से अधिक भी प्राप्त हो सकता है।किंतु हमें इस स्थिति में भी परिणामों से प्रभावित हुए बिना अपने प्रयासों की निरंतरता को बनाए रखना है। कभी भी परिस्थितियों से हार न मानें। इस संदर्भ में ‘चाणक्य नीति’ के निम्न श्लोक उल्लेखनीय है-

चाणक्य नीति
चाणक्य नीति

कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीडितः। व्यसनं केन न प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम्॥

      अर्थात् संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है, जिसके वंश में कोई-न-कोई दोष या अवगुण न हो। कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई दोष निकल ही आता है । संसार में कोई ऐसा प्राणी नहीं है, जो कभी-न-कभी किसी-न-किसी रोग से पीड़ित न हुआ हो, अर्थात् रोग कभी-न-कभी सभी व्यक्तियों को सताता ही है। संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है, जिसे कोई भी व्यसन न हो और संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है, जिसने सदैव सुख ही पाया हो अर्थात् कभी-न-कभी सभी व्यक्तियों को न्यूनाधिक विपरीत परिस्थितियों का सामना भी करना ही पड़ता है।

      चाणक्य नीति में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि विकास के पथिक को विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।अनुकूल परिस्थितियों में तो सामान्य जन भी श्रेष्ठ परिणाम दे सकते हैं; किंतु विकास के पथ पर अनवरत चलने के लिए तो विपरीत परिस्थितियों को भी स्वीकार करके नवीन पथ का सृजन करना अपेक्षित है। चाणक्य हमें विपरीत परिस्थितियों से डटकर मुकाबला करने की प्रेरणा देते हैं।

         चाणक्य नीति के अनुसार प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी को अनुपम बनाया है। कोई भी दो व्यक्ति समान नहीं मिल सकते। यहाँ तक कि जुड़वाँ भाई या जुड़वाँ बहनों में भी अंतर मिलता है। ऐसी स्थिति में, जबकि प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है, निश्चित रूप से उसकी इच्छाएँ, अभिरुचियाँ, आवश्यकताएँ, ध्येय, उद्देश्य, लक्ष्य आदि भिन्न-भिन्न होंगे। अतः भिन्न व्यक्तियों की क्षमताएँ, योग्यताएँ, संकल्प-शक्ति, अभिप्रेरणा का स्तर भी भिन्न-भिन्न होगा। अब भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के प्रयास और उनके परिणाम भी भिन्न-भिन्न ही होंगे। ऐसे में, एक व्यक्ति की सफलता को मापने के लिए दूसरे व्यक्ति से तुलना करना अनुचित है। व्यक्ति को अपनी तुलना किसी अन्य व्यक्ति से करने की अपेक्षा अपनी तुलना स्वयं से ही करनी चाहिए कि एक वर्ष पहले मैं कहाँ था और एक वर्ष बाद मैंने कौन-कौन सी सफलताएँ व उपलब्धियाँ हासिल की हैं? मैं जो लक्ष्य लेकर प्रयास कर रहा था, वह प्राप्त हुआ या नहीं?

चाणक्य नीति के अनुसारसफलता के पैमाने अलग- अलग हैं       

         सफलता सबको अच्छी लगती है, किंतु सफलता के पैमाने अलग- अलग हैं। सभी समय-समय पर सफलता प्राप्त करते भी हैं, किंतु हम सफलता का अर्थ न जानने के कारण सफलता की अनुभूति नहीं कर पाते। हमें पता ही नहीं होता कि हम सफल हुए हैं। इसका कारण है, हम अपने प्रयासों पर ध्यान नहीं देते। हमने जो प्रयास किए हैं, उनकी तुलना में परिणाम प्राप्त हो रहे हैं, यही तो सफलता है। हम सफलता तो चाहते हैं, किंतु सफलता क्या है, कब कितनी सफलता मिली, इस पर विचार नहीं कर पाते। हमें कब कौन सी सफलता मिली? हम इसकी अनुभूति नहीं कर पाते। हम अपनी सफलता की तुलना दूसरों की उपलब्धियों से करने के कारण अपनी सफलता को असफलता समझ बैठते हैं और स्वयं हीन- भावना के शिकार होते चले जाते हैं। सफलता की प्रक्रिया में हमें अपनी उपलब्धियों की तुलना दूसरों की उपलब्धियों से करके सफलता के मूल्य को कमतर नहीं करना चाहिए। हमारी सफलता का संबंध दूसरों की उपलब्धियों से न होकर हमारे प्रयासों से होता है। कोई भी उपलब्धि हमारे द्वारा किए गए प्रयासों का परिणाम होती है। सभी सफलता पाना चाहते हैं: किंतु बहुत कम लोग होते हैं, जो यह स्वीकार कर पाते हैं कि वे सफल हो रहे हैं।

            सफलता को तभी पाया जा सकता है, जबकि हम यह स्वीकार करें कि असफलता नाम की कोई चीज शब्दकोश के सिवाय कहीं मिलती ही नहीं। छोटी-छोटी सफलताओं को स्वीकार करके ही हम जीवन का आनंद उठा सकते हैं। वास्तव में, हम दिन-प्रतिदिन क्या हर पल-क्षण कुछ-न-कुछ करते ही रहते हैं और उन प्रयायों के परिणामस्वरूप हम दिन-प्रतिदिन ही नहीं, क्षण-प्रतिक्षण उपलब्धियाँ भी हासिल करते हैं। छोटी-छोटी उपलब्धियाँ ही छोटी-छोटी सफलताएँ हैं। इन छोटे-छोटे प्रयासों को नियोजित ढंग से श्रृंखलाबद्ध करने से इनको शक्ति एकजुट होकर आपको बड़ी सफलता की और अग्रसर कर सकती है। किंतु आपकी सफलता की भूख निरंतर बढ़ती ही रहनी चाहिए।

           आपके द्वारा किए गए प्रयासों  से जो भी उपलब्धियाँ हासिल हों, उन्हें स्वीकार कीजिए। किसी भी स्थिति में निराश होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कोई भी प्रयास कभी असफल नहीं होता। विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए विद्यालय में जाता है। वह प्रतिदिन प्रति कालांश कुछ-न-कुछ सीखता ही है। अध्यापक विभिन्न प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीकों से विद्यार्थियों को सिखाने का प्रयत्न करते रहते हैं। विद्यार्थी भी कक्षा और कक्षा से बाहर सीखने में मगन रहते हैं। से प्रतिक्षण उपलब्धियाँ हासिल करते हैं; किंतु अध्यापक अपने विद्यार्थियों को इन उपलब्धियों की अनुभूति करा पाने में समर्थ नहीं बना पाते। यदि इस प्रकार की अनुभूति कराने में समर्थ हो जाएँ तो अध्यापकों को विद्यार्थियों को अभिप्रेरित करने के लिए परेशान न होना पड़े और यदि अध्यापक विद्यार्थियों की कार्य से अभिप्रेरित करने की कला सिखा सकें तो अनुशासनहीनता की समस्या का स्वत: ही समाधान हो जाए। यदि विद्यार्थियों को परीक्षाओं से डराने की अपेक्षा उन्हें सीखने की ओर लगाया जाए तो कार्य स्वयं ही अभिप्रेरणा का साधन बन जाएगा।

            चाणक्य नीति में आचार्य चाणक्य का कहना है कि विद्यार्थी जो सीख रहे हैं, उसकी अनुभूति करना उन्हें सिखा दिया जाए तो वे सफलता को स्वीकार करने तथा उसका आनंदोत्सव मनाने की आदतों का विकास कर सकेंगे। विद्यार्थियों को जो मिला है, उस पर प्रसन्न होने का अवसर देने के अपेक्षा उन्हें परीक्षाओं के नाम पर डराया जाता है। उन परीक्षाओं को काल्पनिक उपलब्धियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो वास्तव में विद्यार्थी को कुछ भी नहीं सिखाती। परीक्षा सदैव खरा परीक्षण करती हो, ऐसा भी नहीं है। यदि कोई विद्यार्थी परीक्षा में शून्य अंक प्राप्त करता है तो इसका आशय यह हुआ कि उस विषय में उस परीक्षार्थी को अपने प्रयासों में शून्य उपलब्धि हासिल हुई है, अर्थात् उसे कुछ भी नहीं आता। अब किसी भी विद्यार्थी के लिए जिसने वर्ष भर प्रयास किए हैं, जिसने वर्ष भर बस्ते को ढोया है, व्याख्यानों को झेला है, उसका ज्ञान शून्य होना तो असंभव है। यह तो परीक्षा प्रणाली की ही खामी है कि वह उस विद्यार्थी के ज्ञान का मूल्यांकन नहीं कर पाई।

         परीक्षा उत्तीर्ण करना उपलब्धि नहीं, बल्कि सीखना उपलब्धि है और वह परीक्षाओं से नहीं, कक्षा और कक्षा से बाहर निरंतर प्रयासरत रहने से निरंतर प्राप्त होती रहती है; किंतु विद्यार्थी को उन उपलब्धियों को स्वीकार करना सिखाने में अध्यापक सफल नहीं हो पाते।   यह भी कहा जा सकता है कि उसके लिए अध्यापक प्रयास ही नहीं करते। यदि विद्यार्थी को दिन-प्रतिदिन प्राप्त होनेवाली सफलताओं को स्वीकार करना सिखाया जा सके तो निश्चित रूप में सीखना उनके लिए आनंददायक अनुभव हो जाएगा।

        चाणक्य नीति के अनुसार सफलता तभी मिल सकती है, जब हम अपने प्रत्येक प्रयास के महत्त्व को समझें और प्रत्येक प्रयास की पूर्णता को स्वीकार करें। पूर्णता के साथ प्रयास करना ही अपने आप में सफलता है। छोटे-छोटे प्रयास महत्त्वपूर्ण होते हैं। छोटी-छोटी सफलताएँ भी महत्त्वपूर्ण होती हैं। ध्यान रखें कि छोटी-छोटी बातें ही पूर्णता की ओर ले जाती हैं- और पूर्णता कभी छोटी नहीं होती। आप सफलता के आनंद की अनुभूति तभी कर पाएँगे, जब आप स्वीकार करेंगे कि आपके द्वारा किए गए प्रयास सफल हुए हैं। अतः सफलता की प्रक्रिया को जानना और उसे स्वीकार करना आवश्यक है। सफलता को स्वीकार करने का आशय केवल उपलब्धियों को स्वीकार करने से नहीं है। इसका आशय सफलता की संपूर्ण प्रक्रिया को स्वीकार करने से है।

चाणक्य नीति के अनुसारजीवन में अनगिनत सफलताएँ मिलती हैं

           जीवन में अनगिनत सफलताएँ मिलती हैं, जिन्हें हम स्वीकार न करके आनंद की अनुभूति से वंचित रह जाते हैं और काल्पनिक असफलताओं से परेशान होते रहते हैं। ‘वास्तविक रूप से कोई भी व्यक्ति असफल नहीं होता। जो व्यक्ति काम करता है, उसका परिणाम भी प्राप्त होता है। प्रयासों में जितनी तीव्रता और प्रभावशीलता होगी, तदनुकूल उपलब्धियाँ या अनुभव की प्राप्ति होगी।    प्रयास करने से हमें उपलब्धियाँ मिलें या अनुभव, प्रयास तो सफल ही होने हैं। जरूरत उस सफतलता को समझने व स्वीकार करने की है। जिंदगी में सफलता के नुस्खे को कुछ इस तरह बयाँ किया जा सकता

“जिंदगी उन्हीं को आजमाती है, जो हर मोड़ पर चलना जानते हैं। कुछ पाकर तो हर कोई खुश रहता है; पर जिंदगी उसी की है, जो खोकर भी मुसकराना जानते हैं।”

       प्रसिद्ध लेखक रॉबर्ट एच. शूलर की एक पुस्तक है-‘टफ टाइम्स नेवर लास्ट, टफ पीपुल डू’। इसमें समस्या यानी अँधेरे के पीछे छिपे समाधान और उजाले के लिए वह कहते हैं, “हर समस्या संभावनाओं से भरी है। आप अपने पहाड़ को सोने की खदान में बदल सकते हैं। इसके लिए व्यक्ति को अपने मन में इस बात को भली-भाँति स्वीकार कर लेना चाहिए कि समस्याएँ और जीवन में आनेवाले अँधेरे जिंदगी का एक अहम हिस्सा हैं। उन्हें पार करके ही हम उजालों में प्रवेश कर सकते हैं और अपने व्यक्तित्व को सफल बना सकते हैं।

         सफलता को स्वीकार करने से पूर्व हमें सफलता की प्रक्रिया यानी संघर्ष को भी स्वीकार करना होगा। अच्छा हो, हम इसे प्रसन्नता के साथ स्वीकार करें और हमारे चेहरे से क्षण भर के लिए भी मुस्कराहट न हटे। कर्म जिस लक्षण की प्राप्ति के लिए किया जाता है, उस उद्देश्य को प्राप्ति ही सफलता का द्योतक होता है।   कर्म निरुद्देश्य नहीं हो सकता। मानव के समस्त कर्म ध्येय आधारित होते हैं। इसे हम यूँ भी कह सकते हैं कि मानव एक विवेकशील प्राणी है। अत: उसके समस्त कर्म ध्येय आधारित होने चाहिए।   मानव का ध्येय ही स्पष्ट नहीं होगा तो वह कर्म करेगा किसके लिए? जब गंतव्य ही निर्धारित नहीं होगा तो हम यात्रा का प्रारंभ ही क्यों करेंगे और किस दिशा की और? निस्संदेह हम यात्रा प्रारंभ करते से पूर्व गंतव्य का निर्धारण करते हैं।  ठीक इसी प्रकार कोई भी कार्य करने से पूर्व इसका उद्देश्य भी स्पष्ट कर लेना चाहिए। ध्येय, उद्देश्य व लक्ष्य ही हैं, जो हमें आगे बढ़ने और निरंतर कर्मरत रहने की अभिप्रेरणा देते हैं। ध्येय, उद्देश्य या लक्ष्य के बिना मानव दीर्घकाल तक कर्मरत नहीं रह सकता।

चाणक्य नीति के अनुसार सफलता तो तब है, जब हमने कोई लक्ष्य निर्धारित किया हो

          चाणक्य नीति के अनुसार आचार्य चाणक्य ने अपने सूत्रों के माध्यम से संदेश दिया है-सफलता तो तब है, जब हमने कोई लक्ष्य निर्धारित किया हो, परिस्थितियों का अध्ययन किया हो, पूर्वानुमान लगाया हो; उसके लिए योजना बनाई हो, उसके लिए संसाधन जुटाए हों और उन संसाधनों का तकनीकी के साथ कुशलतापूर्वक प्रयोग किया हो। इस प्रकार मानवीय व भौतिक संसाधनों का प्रबंधन करने के साथ किए गए प्रयासों के परिणामस्वरूप प्राप्त होनेवाला संतुष्टिदायक परिणाम ही उस कार्य का फरत है। कार्य का फल प्राप्त होना ही तो सफलता है। सफलता का आधार कर्म है। कर्म के महत्व की इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

   कर्म जिनके अच्छे हैं, किस्मत उनकी दासी है।  नीयत जितकी अच्छी है, घर ही मथुरा काशी है।

        ‘सफलता’ शब्द का निर्माण ‘स’ उपसर्ग और ‘ता’ प्रत्यय के ‘फल’ के साथ योग से हुआ है, जिसका अर्थ होता है-‘फल सहित’, अर्थात् किए गए प्रयासों का फल या परिणाम प्राप्त होना।  अपने प्रयासों का परिणाम प्राप्त करना, अर्थात् किए गए प्रयासों का परिणाम के रूप में फलीभूत होना। अभिधा शक्ति के अनुसार, सफल का अर्थ फल लगने से होता है, किंतु इसका अधिकांशत: लाक्षणिक अर्थ लिया जाता है।  लाक्षणिक अर्थ में सफलता का अर्थ ‘किसी कर्म का तदनुकूल परिणाम प्राप्त होने से है।’

        चाणक्य नीति के अनुसार सफलता कर्म के पश्चात् आती है। सफलता से पूर्व कर्म की उपस्थिति आवश्यक है। यदि किसी व्यक्ति को बिना कर्म किए कोई वस्तु अनायास प्राप्त हो जाती है तो सफलता नहीं कहा जा सकता।  वह व्यक्ति सफलता के आनंद का अधिकारी भी नहीं है। यदि वह व्यक्ति अनायास प्राप्त होनेवाली वस्तु को प्राप्त करने का जश्न मनाता है तो वह मुफ्तखोर है। मुफ्तखोरी न तो व्यक्ति के विकास के लिए उपयोगी है और न समाज व राष्ट्र के विकास के लिए। जब कर्म ही नहीं किया गया तो सफलता किस बात की। बीज बोने पर ही पौधा अंकुरित होता है। बिना बीज डाले, सिंचाई किए, पुष्पित-पल्लवित हुए फल प्राप्त नहीं हो सकता। प्राप्त होना भी नहीं चाहिए। यह प्रकृति सिद्धांतों के प्रतिकूल है और प्रकृति के सिद्धांत के खिलाफ क्रियाएँ होना विनाश का पूर्वाभास ही कहा जा सकता है। कहने का आशय है- अनायास कुछ प्राप्त हो जाना सफलता नहीं है। ‘सफलता’ सर्वप्रिय शब्द है। सभी व्यक्ति सफल होना चाहते हैं। सभी व्यक्तियों में सफलता की भूख पाई जाती है।

         एक छोटा सा बच्चा भी अपने प्रयासों में सफलता पाकर फूला नहीं समाता और अपेक्षित परिणाम न पाकर मुँह लटका लेता है या रोने लगता है। आप कभी बच्चों को खेलते हुए देखिए। खेल में सफल होकर बच्चे कितने आनंद का अनुभव करते हैं। बच्चा अपने माँ बाप या अभिभावकों से कोई बात मनवाना चाहता है और उसके प्रयास के फलस्वरूप हम उसकी बात मान लेते हैं। अपने प्रयासों के सफल होने पर वह कितना खुश होता है। कभी महसूस करके तो देखिए।

          सफलता केवल अंतरराष्ट्रीय या राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में स्थान पाकर ही नहीं मिलती। माँ-बाप अपनी नन्ही- मुन्नी बच्ची को लड़खड़ाते हुए एक कदम चलाने में सफल हो जाते हैं तो वह पहला कदम उन्हें कितना आनंद देता है, उसकी अनुभूति शब्दों में बयाँ करना संभव नहीं है।

  चाणक्य नीति के अनुसार, सफलता की अनुभूति करने के लिए आवश्यक है कि हम सफलता के अर्थ को जानें और स्वीकार करें कि हमने उपलब्धि प्राप्त की है और यह उपलब्धि हमारे प्रयासों की सफलता है।

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