ज़ुल्फ़ पर शायरी इन हिंदी Julf Par Shayari in Hindi
ज़ुल्फ़ पर शायरी:ज़ुल्फ़ की अहमियत और उसका हुस्न
ज़ुल्फ़, जिसे हम बाल भी कहते हैं, हमेशा से ही शायरों और आशिकों के दिलों के करीब रहा है। ज़ुल्फ़ों की गहराई और उनकी लहराती खूबसूरती मोहब्बत की निशानी मानी जाती है। शायरी में ज़ुल्फ़ का ज़िक्र न केवल मोहब्बत, बल्कि अदाओं और हुस्न को बयां करने के लिए किया जाता है। जब ज़ुल्फ़ें खुले आसमान की तरह बिखरती हैं, तो दिलों में एक अनकही बात जगमगा उठती है।
ज़ुल्फ़ पर शायरी: ज़ुल्फ़ों का शायराना अंदाज़
ज़ुल्फ़ों को शायरों ने अक्सर रात के अंधेरे या काली घटाओं से जोड़ा है। ज़ुल्फ़ों की तुलना घने बादलों से की जाती है, जो आशिक के दिल पर छा जाती हैं। जब ज़ुल्फ़ें चेहरे पर आती हैं, तो वो पर्दानशीं की तरह दिल पर छा जाती हैं।
ज़ुल्फ़ पर शायरी : ज़ुल्फ़ और मोहब्बत का रिश्ता
ज़ुल्फ़ों का रिश्ता मोहब्बत से ऐसा है जैसे चांद का रात से। शायर ज़ुल्फ़ों के हर लम्हे को एक ख्वाब की तरह देखते हैं। ज़ुल्फ़ों की लहराती चाल मोहब्बत के बंधन को और गहरा कर देती है। जब प्रेमी अपनी महबूबा की ज़ुल्फ़ों में खुद को खो देता है, तो उसकी मोहब्बत और भी शिद्दत से बढ़ जाती है।
ज़ुल्फ़ों में एक ऐसा रहस्य होता है, जो उन्हें और भी आकर्षक बना देता है। जब कोई महबूबा अपने आशिक के सामने अपनी ज़ुल्फ़ें फैलाती है, तो आशिक उस मोहक छवि में खो जाता है। ज़ुल्फ़ों की खूबसूरती और उनका जादू हमेशा से मोहब्बत की कहानियों का हिस्सा रहा है।
शायरी में ज़ुल्फ़ों का महत्व सिर्फ उनकी खूबसूरती तक सीमित नहीं है, बल्कि उनके पीछे छिपी गहराई और भावना भी मायने रखती है। ज़ुल्फ़ें शायर के लिए उस प्रेम की प्रतीक हैं, जो अधूरी होते हुए भी पूर्ण लगता है। ज़ुल्फ़ों में शायर ने प्रेमिका की नजाकत और उसका अदब देखा है।

पूछा जो उन से चांद निकलता है किस तरह
ज़ुल्फ़ों को रुख़ पे डाल के झटका दिया कि यूं
-आरज़ू लखनवी
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अपने सर इक बला तो लेनी थी
मैं ने वो ज़ुल्फ़ अपने सर ली है
-जौन एलिया
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हम हुए तुम हुए कि ‘मीर’ हुए
उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए
-मीर तक़ी मीर
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किस ने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी
झूम के आई घटा टूट के बरसा पानी
-आरज़ू लखनवी
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नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिस के बाज़ू पर परेशां हो गईं
-मिर्ज़ा ग़ालिब
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बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना
तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है
-असरार-उल-हक़ मजाज़
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छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को
तुम ने ज़ुल्फ़ों को बहुत सर पे चढ़ा रक्खा है
-ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
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देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब में
फिर जब तलक जिया मैं परेशान ही रहा
-रज़ा अज़ीमाबादी
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फिर याद बहुत आएगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा
-बशीर बद्र
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सुब्ह-दम ज़ुल्फ़ें न यूं बिखराइए
लोग धोका खा रहे हैं शाम का
-शरर बलयवी
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ज़ाहिद ने मिरा हासिल-ए-ईमां नहीं देखा
रुख़ पर तिरी ज़ुल्फ़ों को परेशाँ नहीं देखा
– असग़र गोंडवी
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सब के जैसी न बना ज़ुल्फ़ कि हम सादा-निगाह
तेरे धोके में किसी और के शाने लग जाएं
-फ़रहत एहसास
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बाल अपने उस परी-रू ने संवारे रात भर
सांप लोटे सैकड़ों दिल पर हमारे रात भर
लाला माधव राम जौहर
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ज़रा उन की शोख़ी तो देखना लिए ज़ुल्फ़-ए-ख़म-शुदा हाथ में
मेरे पास आए दबे दबे मुझे सांप कह के डरा दिया
-नवाब सुल्तान जहां बेगम
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किसी के हो रहो अच्छी नहीं ये आज़ादी
किसी की ज़ुल्फ़ से लाज़िम है सिलसिला दिल का
-यगाना चंगेज़ी
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बिखरी हुई हो ज़ुल्फ़ भी इस चश्म-ए-मस्त पर
हल्का सा अब्र भी सर-ए-मय-ख़ाना चाहिए
-अज्ञात
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गेसू रुख़ पर हवा से हिलते हैं
चलिए अब दोनों वक़्त मिलते हैं
-मिर्ज़ा शौक़ लखनवी
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गई थी कह के मैं लाती हूं ज़ुल्फ़-ए-यार की बू
फिरी तो बाद-ए-सबा का दिमाग़ भी न मिला
-जलाल लखनवी
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किसने भीगे हुए बालों से ये छटका पानी
झूम के आयी घटा टूट के बरसा पानी
– आरज़ू लखनवी

चाँदी जैसा रंग है तेरा, सोने जैसे बाल
एक तू ही धनवान है गोरी बाक़ी सब कंगाल
– क़तील शिफ़ाई
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ज़ाहिद ने मेरा हासिले ईमां नहीं देखा
रुख़ पर तिरी ज़ुल्फों को परेशां नहीं देखा
– असगडर गोंडवी
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अब्र में चाँद गर न देखा हो
रुख़ पे ज़ुल्फों को डाल कर देखो
– जोश लखनवी
ज़ुल्फ़ पर शायरी Julf Par Shayari
छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को
तुमने ज़ुल्फ़ों के बहुत सर पे चढ़ा रखा है
– ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
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कुछ बिखरी हुई यादों के किस्से भी बहुत थे
कुछ उसने भी बालों को खुला छोड़ दिया था
– मुनव्वर राना
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उनके गेसू संवरते जाते हैं
हादसे हैं गुज़रते जाते हैं
– महेश चन्द्र नक्श
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बरसात का मज़ा तिरे गेसू दिखा गए
अक्स आसमान पर जो पड़ा अब्र छा गए
– माधव राम जौहर
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देखी थी इक रात तेरी ज़ुल्फ़ ख्वाब में
फिर जब तलक जिया मैं परेशान ही रहा
– रज़ा अज़ीमाबादी

जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
तब मैं ने अपने दिल में लाखों ख़याल बाँधे
– मोहम्मद रफ़ी सौदा
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न झटको ज़ुल्फ़ से पानी ये मोती टूट जाएँगे
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा मगर दिल टूट जाएँगे
– राजेन्द्र कृष्ण
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‘हातिम’ उस ज़ुल्फ़ की तरफ़ मत देख
जान कर क्यूँ बला में फँसता है
– शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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शुक्र है बाँध लिया अपने खुले बालों को
उस ने शीराज़ा-ए-आलम को बिखरने न दिया
– जलील मानिकपूरी
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ये कह कर सितम-गर ने ज़ुल्फ़ों को झटका
बहुत दिन से दुनिया परेशाँ नहीं है
– अज्ञात
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ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फ़साना
– एहसान दानिश
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ये खुले खुले से गेसू इन्हें लाख तू सँवारे
मिरे हाथ से सँवरते तो कुछ और बात होती
– आग़ा हश्र काश्मीरी
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सुब्ह-दम ज़ुल्फ़ें न यूँ बिखराइए
लोग धोका खा रहे हैं शाम का
– शरर बलयवी
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सरक कर आ गईं ज़ुल्फ़ें जो इन मख़मूर आँखों तक
मैं ये समझा कि मय-ख़ाने पे बदली छाई जाती है
– नुशूर वाहिदी
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हम हुए तुम हुए कि ‘मीर’ हुए
उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए
मीर तक़ी मीर
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आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
मिर्ज़ा ग़ालिब
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जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
तब मैं ने अपने दिल में लाखों ख़याल बाँधे
मोहम्मद रफ़ी सौदा
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बिखरी हुई वो ज़ुल्फ़ इशारों में कह गई
मैं भी शरीक हूँ तिरे हाल-ए-तबाह में
जलील मानिकपूरी
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अपने सर इक बला तो लेनी थी
मैं ने वो ज़ुल्फ़ अपने सर ली है
जौन एलिया
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कुछ बिखरी हुई यादों के क़िस्से भी बहुत थे
कुछ उस ने भी बालों को खुला छोड़ दिया था
मुनव्वर राना
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ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
तिरी सुब्ह कह रही है तिरी रात का फ़साना
एहसान दानिश
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नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिस के बाज़ू पर परेशाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
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बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना
तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है
असरार-उल-हक़ मजाज़

ऐ जुनूँ फिर मिरे सर पर वही शामत आई
फिर फँसा ज़ुल्फ़ों में दिल फिर वही आफ़त आई
आसी ग़ाज़ीपुरी
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हाथ टूटें मैं ने गर छेड़ी हों ज़ुल्फ़ें आप की
आप के सर की क़सम बाद-ए-सबा थी मैं न था
मोमिन ख़ाँ मोमिन
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देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब में
फिर जब तलक जिया मैं परेशान ही रहा
रज़ा अज़ीमाबादी
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ये खुले खुले से गेसू इन्हें लाख तू सँवारे
मिरे हाथ से सँवरते तो कुछ और बात होती
कैफ़ी विजदानी
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छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को
तुम ने ज़ुल्फ़ों को बहुत सर पे चढ़ा रक्खा है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
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सरक कर आ गईं ज़ुल्फ़ें जो इन मख़मूर आँखों तक
मैं ये समझा कि मय-ख़ाने पे बदली छाई जाती है
नुशूर वाहिदी
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न झटको ज़ुल्फ़ से पानी ये मोती टूट जाएँगे
तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा मगर दिल टूट जाएँगे
राजेन्द्र कृष्ण
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ज़ुल्फ़ें सीना नाफ़ कमर
एक नदी में कितने भँवर
जाँ निसार अख़्तर
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इजाज़त हो तो मैं तस्दीक़ कर लूँ तेरी ज़ुल्फ़ों से
सुना है ज़िंदगी इक ख़ूबसूरत दाम है साक़ी
अब्दुल हमीद अदम
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देख लेते जो मिरे दिल की परेशानी को
आप बैठे हुए ज़ुल्फ़ें न सँवारा करते
जलील मानिकपूरी
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जो देखते तिरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
असीर होने की आज़ाद आरज़ू करते
हैदर अली आतिश
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कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ कि चमक चमक के पलट गए
न लहू मिरे ही जिगर में था न तुम्हारी ज़ुल्फ़ सियाह थी
अहमद मुश्ताक़
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फिर याद बहुत आएगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा
बशीर बद्र
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आप की नाज़ुक कमर पर बोझ पड़ता है बहुत
बढ़ चले हैं हद से गेसू कुछ इन्हें कम कीजिए
हैदर अली आतिश
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ज़ाहिद ने मिरा हासिल-ए-ईमाँ नहीं देखा
रुख़ पर तिरी ज़ुल्फ़ों को परेशाँ नहीं देखा
असग़र गोंडवी
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सुब्ह-दम ज़ुल्फ़ें न यूँ बिखराइए
लोग धोका खा रहे हैं शाम का
शरर बलयवी
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सब के जैसी न बना ज़ुल्फ़ कि हम सादा-निगाह
तेरे धोके में किसी और के शाने लग जाएँ
फ़रहत एहसास
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अब्र में चाँद गर न देखा हो
रुख़ पे ज़ुल्फ़ों को डाल कर देखो
जोश लखनवी
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तसव्वुर ज़ुल्फ़ का है और मैं हूँ
बला का सामना है और मैं हूँ
लाला माधव राम जौहर
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उलझा है पाँव यार का ज़ुल्फ़-ए-दराज़ में
लो आप अपने दाम में सय्याद आ गया
मोमिन ख़ाँ मोमिन
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मुँह पर नक़ाब-ए-ज़र्द हर इक ज़ुल्फ़ पर गुलाल
होली की शाम ही तो सहर है बसंत की
लाला माधव राम जौहर
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बाल अपने उस परी-रू ने सँवारे रात भर
साँप लोटे सैकड़ों दिल पर हमारे रात भर
लाला माधव राम जौहर
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मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख
रस्ते में छाँव पा के मुसाफ़िर ठहर न जाए
फ़ानी बदायुनी
हिंदी मे ज़ुल्फ़ पर शायरी Hindi men Julf Par Shayari
ये कह कर सितम-गर ने ज़ुल्फ़ों को झटका
बहुत दिन से दुनिया परेशाँ नहीं है
अज्ञात
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ज़रा उन की शोख़ी तो देखना लिए ज़ुल्फ़-ए-ख़म-शुदा हाथ में
मेरे पास आए दबे दबे मुझे साँप कह के डरा दिया
नवाब सुल्तान जहाँ बेगम
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कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है
ज़िंदगी शाम है और शाम ढली जाए है
प्रेम वारबर्टनी
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रुख़-ए-रौशन पे उस की गेसू-ए-शब-गूँ लटकते हैं
क़यामत है मुसाफ़िर रास्ता दिन को भटकते हैं
भारतेंदु हरिश्चंद्र
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शुक्र है बाँध लिया अपने खुले बालों को
उस ने शीराज़ा-ए-आलम को बिखरने न दिया
जलील मानिकपूरी
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ज़ुल्फ़ों में किया क़ैद न अबरू से किया क़त्ल
तू ने तो कोई बात न मानी मिरे दिल की
इमाम बख़्श नासिख़
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किसी के हो रहो अच्छी नहीं ये आज़ादी
किसी की ज़ुल्फ़ से लाज़िम है सिलसिला दिल का
यगाना चंगेज़ी
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जलता है अब तलक तिरी ज़ुल्फ़ों के रश्क से
हर-चंद हो गया है चमन का चराग़ गुल
आबरू शाह मुबारक
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बरसात का मज़ा तिरे गेसू दिखा गए
अक्स आसमान पर जो पड़ा अब्र छा गए
लाला माधव राम जौहर
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अल्लाह-रे तेरे सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ की कशिश
जाता है जी उधर ही खिंचा काएनात का
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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उस ज़ुल्फ़ पे फबती शब-ए-दीजूर की सूझी
अंधे को अँधेरे में बड़ी दूर की सूझी
जुरअत क़लंदर बख़्श
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‘हातिम’ उस ज़ुल्फ़ की तरफ़ मत देख
जान कर क्यूँ बला में फँसता है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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उन के गेसू सँवरते जाते हैं
हादसे हैं गुज़रते जाते हैं
महेश चंद्र नक़्श
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उस के रुख़्सार पर कहाँ है ज़ुल्फ़
शोला-ए-हुस्न का धुआँ है ज़ुल्फ़
जोशिश अज़ीमाबादी
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तिरी जो ज़ुल्फ़ का आया ख़याल आँखों में
वहीं खटकने लगा बाल बाल आँखों में
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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ज़ुल्फ़ें मुँह पर हैं मुँह है ज़ुल्फ़ों में
रात भर सुब्ह शाम दिन भर है
लाला माधव राम जौहर
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वो नहा कर ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ को जो बिखराने लगे
हुस्न के दरिया में पिन्हाँ साँप लहराने लगे
शाद लखनवी
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दुनिया की रविश देखी तिरी ज़ुल्फ़-ए-दोता में
बनती है ये मुश्किल से बिगड़ती है ज़रा में
अज़ीज़ हैदराबादी
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गई थी कह के मैं लाती हूँ ज़ुल्फ़-ए-यार की बू
फिरी तो बाद-ए-सबा का दिमाग़ भी न मिला
जलाल लखनवी
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ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
कि बढ़ चले हैं अब इन गेसुओं के भी साए
हफ़ीज़ होशियारपुरी
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टूटें वो सर जिस में तेरी ज़ुल्फ़ का सौदा नहीं
फूटें वो आँखें कि जिन को दीद का लपका नहीं
हक़ीर
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असर ज़ुल्फ़ का बरमला हो गया
बलाओं से मिल कर बला हो गया
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
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ऐ जुनूँ हाथ जो वो ज़ुल्फ़ न आई होती
आह ने अर्श की ज़ंजीर हिलाई होती
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
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इक मिरा सर कि क़दम-बोसी की हसरत इस को
इक तिरी ज़ुल्फ़ कि क़दमों से लगी रहती है
मुबारक अज़ीमाबादी
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तिरे रुख़्सार से बे-तरह लिपटी जाए है ज़ालिम
जो कुछ कहिए तो बल खा उलझती है ज़ुल्फ़ बे-ढंगी
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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बस इतनी सी बात थी उस की ज़ुल्फ़ ज़रा लहराई थी
ख़ौफ़-ज़दा हर शाम का मंज़र सहमी सी हर रात मिली
अक़ील नोमानी
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ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता में ‘नसीर’ पीटा कर
गया है साँप निकल तू लकीर पीटा कर
शाह नसीर
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दिल से क्या पूछता है ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से पूछ
अपने दीवाने का अहवाल तू ज़ंजीर से पूछ
इम्दाद इमाम असर
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निकल गया था वो हसीन अपनी ज़ुल्फ़ बाँध कर
हवा की बाक़ियात को समेटते रहे हैं हम
अज़हर फ़राग़
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न मिज़ाज-ए-नाज़-ए-जल्वा कभी पा सकीं निगाहें
कि उलझ के रह गई हैं तिरी ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म में
अख़्तर ओरेनवी
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मिरे हाथ सुलझा ही लेंगे किसी दिन
अभी ज़ुल्फ़-ए-हस्ती में ख़म है तो क्या ग़म
अली जवाद ज़ैदी
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दिल उस की तार-ए-ज़ुल्फ़ के बल में उलझ गया
सुलझेगा किस तरह से ये बिस्तार है ग़ज़ब
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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कुछ अब के हम भी कहें उस की दास्तान-ए-विसाल
मगर वो ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ खुले तो बात चले
अज़ीज़ हामिद मदनी
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ज़ुल्फ़-ए-कलमूँही को प्यारे इतना भी सर मत चढ़ा
बे-महाबा मुँह पे तेरे पाँव करती है दराज़
हसरत अज़ीमाबादी
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ऐ ज़ुल्फ़-ए-यार तुझ से भी आशुफ़्ता-तर हूँ मैं
मुझ सा न कोई होगा परेशान-ए-रोज़गार
जोशिश अज़ीमाबादी
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कभी बे-दाम ठहरावें कभी ज़ंजीर करते हैं
ये ना-शाएर तिरी ज़ुल्फ़ाँ कूँ क्या क्या नाम धरते हैं
आबरू शाह मुबारक
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डर ख़ुदा सीं ख़ूब नईं ये वक़्त-ए-क़त्ल-ए-आम कूँ
सुब्ह कूँ खोला न कर इस ज़ुल्फ़-ए-ख़ून-आशाम कूँ
आबरू शाह मुबारक
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ऐ मुसलमानो बड़ा काफ़िर है वो
जो न होवे ज़ुल्फ़-गीराँ का मुतीअ
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
बालों पर शायरी इन हिंदी Balon par Shayari in HIndi
- मेरी जान तेरे इश्क़ में खोने को जी चाहता हैं, तेरी खुले बालों की छाँव में सोने को जी चाहता हैं.
- बालों को जो यूँ घुमा के पिन लगाती हो, उसमें मेरा दिल कहीं खो जाता हैं.
- उन्हें बाहों में लूँ और उनकी जुल्फ़े बिखर जाए, इसके इंतज़ार में कहीं जिंदगी न गुजर जाए.
- वक्त को कौन चलने से रोक पायेगा, जुल्फ़े जो तेरी खुली तो सावन आयेगा।
- जब वो अपने हाथों से अपने खुले बाल बाँधें, तब मैंने अपने दिल लाखों-करोड़ो ख्याल बाँधे।
- अपनी खुली बालों को बाँध लिया करो, वरना बिन मौसम ही बरसात हो जायेगी।
- अगर तेरे खुलें बालों की कोई तारीफ़ न करें, तो इन खुले बालों का क्या फायदा।
- मुझसे इश्क कुछ यूँ निभा देना, मैं जब अपने बाल खोलू तो तुम मुस्कुरा देना।
- कुछ लफ्ज़ लिखना तो चाहता हूँ तेरे ख्यालों पर, लेकिन मैं खुद उलझ गया हूँ, तेरे उलझे हुए बालों पर.
- दो इजाज़त हमें तुम्हारे और करीब आने की तेरे खुले बालों में खो जाने की तमन्ना है.
ज़ुल्फ़ें सिर्फ बाल नहीं होतीं, बल्कि मोहब्बत और हुस्न का एक अहम हिस्सा होती हैं। शायरी में ज़ुल्फ़ों का जिक्र हमेशा से मोहब्बत, जज़्बात और खूबसूरती को बयां करता आया है। ज़ुल्फ़ों का हुस्न और उनका जादू दिलों को जोड़ता है और प्रेम को और गहरा करता है।