चाणक्य नीति : 20 अनमोल वचन

आचार्य चाणक्य ने अपने अनुभव और ज्ञान

आचार्य चाणक्य ने अपने अनुभव, ज्ञानऔर चाणक्य नीति के आधार पर मनुष्य के जीवन को प्रभावित करने वाली महत्वपूर्ण बातें अपनी नीतिशास्त्र में लिखी है साथ ही चाणक्य ने नीतिशास्त्र में कुछ ऐसी बातों के बारे में भी जिक्र किया है जिन्हें ध्यान में रखकर मनुष्य शंकट और बुरा वक्त आने पर वह उसका सामना कर लेता है आइये कुछ निम्नलिखित श्लोक को देखते हैं :-

चाणक्य नीति
चाणक्य नीति

मुहूर्तमपि जीवेत नरः शुक्लेन कर्मणा ।

न कल्पमपि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना।

      चाणक्य नीति के अनुसार उद्देश्यरहित दीर्घकालिक जीवन की अपेक्षा चाणक्य शुभ कर्मों से युक्त अल्पकालिक जीवन को अधिक श्रेष्ठ मानते हैं। वे कहते हैं कि अनेक दुःखों तथा पापों से युक्त दीर्घ जीवन अत्यंत कष्टदायक होता है। ऐसे जीवन का मनुष्य के लिए कोई महत्त्व नहीं है। इसके विपरीत यदि मनुष्य का जीवन सत्कर्मों से युक्त हो तो वह अल्प होने पर भी परम सुखदायक होता है। इसलिए मनुष्य की आयु कितनी भी हो, उसे सदैव सत्कर्म करने चाहिए। इसी में उसका कल्याण निहित होता है।

गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत्।

वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः ॥

    चाणक्य नीति में उपर्युक्त श्लोक द्वारा पिछली बातों को याद करके बार-बार दुःखी होने या निराशा प्रकट करनेवाले मनुष्यों को परामर्श देते हुए चाणक्य कहते हैं कि बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता, उसमें घटित घटनाओं को बदला नहीं जा सकता। इसलिए उसे बार-बार याद करने से कोई लाभ नहीं होता। अतः मनुष्य को उसे भूल जाना चाहिए। इसी प्रकार भविष्य में क्या घटित होनेवाला है, मनुष्य इससे भी पूर्णतः अनभिज्ञ होता है। इसलिए उसका चिंतन भी व्यर्थ है। मनुष्य को केवल अपने वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यदि वह वर्तमान को सुधार लेगा तो उसका भविष्य अपने आप ही उज्ज्वल हो जाएगा।

स्वभावेन हि तुष्यन्ति देवाः सत्पुरुषाः पिता।

ज्ञातयः स्वन्नपानाभ्यां वाक्यदानेन पण्डिताः ।।

    चाणक्य नीति में सद्व्यवहार और उत्तम स्वभाव का महत्त्व बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य बिना अधिक परिश्रम किए केवल अच्छे आचरण और स्वभाव द्वारा ही विद्वान् व्यक्ति, सज्जन पुरुष और पिता को संतुष्ट कर सकता है। इसी प्रकार मृदु वाणी द्वारा मित्रों, बंधु-बांधवों तथा पंडितों को प्रसन्न करके संतुष्ट करें। अर्थात् श्रेष्ठ स्वभाव तथा मृदु वाणी से युक्त मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं होता।

अहो बत विचित्राणि चरितानि महाऽऽत्मनाम् ।

लक्ष्मीं तृणाय मन्यन्ते तद्भारेण नमन्ति च ॥

        चाणक्य ने चाणक्य नीति में इस श्लोक द्वारा सज्जन मनुष्य के स्वभाव का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि महात्मा अर्थात् सज्जन पुरुष बड़े ही विचित्र स्वभाव के होते हैं। जिस धन को पाने के लिए अधिकतर व्यक्ति विभिन्न प्रकार के नीच कर्म करते हैं, वह सज्जनों के लिए तृण अर्थात् तिनके के समान है। उनकी दृष्टि में धन का कोई महत्त्व नहीं होता। यदि वे असीमित धन से युक्त हो जाएँ तो भी उनमें अहंकार या पाप का लेशमात्र चिह्न भी उत्पन्न नहीं होता; उनकी नम्रता में कोई परिवर्तन नहीं आता । भौतिक सुख या परिवर्तन उनके स्वभाव को प्रभावित नहीं कर सकते।

 यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्।

स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत् सुखम्॥

    चाणक्य नीति में  चाणक्य ने स्नेह को समस्त दुःखों की जड़ माना है। इस विचार को वे उपर्युक्त श्लोक द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मनुष्य जिसके साथ भी स्नेह से बँध जाता है, उसका जीवन उसी के अनुरूप चलने लगता है। जब वह व्यक्ति दुःखी होता है तो उसे देखकर स्नेह-बंधन में बँधा मनुष्य भी दुःखी हो जाता है। इसी प्रकार वह उसके सुखों में ही अपना सुख तथा उसके भय में अपना भय देखता है। यही स्नेह जीवात्मा को बार-बार जीवन-मृत्यु के चक्र की ओर धकेलता है। इसके विपरीत, स्नेह से रहित मनुष्य के लिए सभी एक समान होते हैं। उसे न तो किसी के दु:खी होने से दुःख होता है और न ही किसी के सुखी होने से सुख। वह हृदय में सभी के लिए एक ही भाव रखता है। इसलिए विद्वान् मनुष्य को अत्यधिक स्नेह का परित्याग करके सुखमय जीवन व्यतीत करना चाहिए।

 च अनागतविधाता प्रत्युत्पन्नमतिस्तथा ।

द्वावेतौ सुखमेधेते यद्भविष्यो विनश्यति ॥

     केवल भाग्य के सहारे जीवनयापन करनेवाले मनुष्य अपने बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ ही नष्ट कर लेते हैं। लेकिन जो मनुष्य पुरुषार्थ द्वारा संकट की स्थिति से पूर्व अपना बचाव कर लेते हैं तथा जो विपरीत परिस्थितियों में भी जूझते रहते हैं, वे सदैव सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं। चाणक्य का मानना है कि यद्यपि भाग्य को बदला नहीं जा सकता, मनुष्य जो लिखवाकर आया है, वह उसे भोगना ही होगा; लेकिन पुरुषार्थ एवं कर्म द्वारा प्रतिकूल भाग्य को भी अनुकूल बनाया जा सकता है। इसलिए मनुष्य को पुरुषार्थ से पीछे नहीं हटना चाहिए।

 राजिधर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः।

राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः॥

      जिस राज्य का राजा धार्मिक और गुणी होगा, वहाँ की प्रजा भी धार्मिक और गुणी होगी। और यदि राजा पापी होगा तो प्रजा भी वैसा ही आचरण करेगी; क्योंकि प्रजा राजा का ही अनुसरण करती है। तभी तो कहा गया है-‘यथा राजा तथा प्रजा’ ।

जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम् ।

मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः॥

       चूँकि अधर्मी व्यक्ति सदैव पाप, व्यभिचार और बुरे कर्मों को बढ़ावा देता है, समाज को उससे लाभ की अपेक्षा हानि ही होती है। इसलिए चाणक्य की दृष्टि में अधर्मी मनुष्य जीवित होते हुए भी मृतक के समान है। इसके विपरीत जीवन भर शुभ एवं सत्कर्म करनेवाला मनुष्य मृत्यु के उपरांत भी स्मरणीय होता है। उसका यश और कीर्ति मृत्यु के बाद भी उसे जीवित रखती है। इसलिए मनुष्य को सत्कर्मों द्वारा मान-सम्मान एवं यश प्राप्त करना चाहिए, जिससे मृत्यु के बाद भी लोग उसे याद करके जीवित रखें।

धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।

अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम्॥

       धार्मिक ग्रंथों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चार पुरुषार्थ कहे गए हैं। इनमें से अर्थ एवं काम लोक के तथा धर्म एवं मोक्ष परलोक के पुरुषार्थ कहे गए हैं। इन चारों पुरुषार्थों में मनुष्य-जीवन की सार्थकता निहित है। बिना पुरुषार्थ के जीवन व्यर्थ है। इसलिए मनुष्य को कम-से-कम किसी एक पुरुषार्थ के लिए अवश्य प्रयत्नशील रहना चाहिए।

 दह्यमानाः सुतीव्रेण नीचाः पर यशोऽग्निना।

अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते॥

      दुष्ट एवं दुर्जन व्यक्ति की सोच एवं व्यवहार का वर्णन करते हुए चाणक्य कहते हैं कि दूसरों की उन्नति को देखकर ईर्ष्या करना दुर्जन व्यक्ति का जन्मजात स्वभाव होता है। ऐसी स्थिति में वह स्वयं भी उन्नति के लिए प्रयत्नशील होकर दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। लेकिन असफल होने पर वे परनिंदा द्वारा स्वयं को बड़ा और दूसरों को छोटा दिखाने में अपना बड़प्पन समझते हैं। इसी प्रकार वे निरंतर योग्य व्यक्ति को भी अयोग्य सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं। ऐसी भावना से युक्त व्यक्ति ही दुर्जन होता है।

 बन्धाय विषयाऽऽसक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः ।

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ॥

    उपर्युक्त श्लोक द्वारा चाणक्य ने मन को समस्त बंधनों एवं दुःखों का कारण माना है। वे कहते हैं कि मोक्ष प्राप्ति के लिए ही ईश्वर जीवात्मा को मनुष्य-जीवन प्रदान करता है। लेकिन काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि विकारों में लिप्त होकर मनुष्य अपने वास्तविक लक्ष्य की ओर से भटक जाता है। इसका एकमात्र कारण मन है। मन ही मनुष्य को विषय-वासनाओं की ओर धकेलकर उसे पाप कर्म की ओर अग्रसर करता है। मन के वशीभूत हुआ मनुष्य जीवन-मृत्यु के चक्र से कभी मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह मन को समस्त विकारों से रहित करके अपने वश में करे। तभी परलोक में उसका कल्याण संभव है।

 देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।

यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ॥

     मनुष्य-देह नाशवान् है, इसलिए देह का अभिमान नहीं करना चाहिए। जो मनुष्य अहंकार-रहित होकर मन में ईश्वर भक्ति की लौ प्रज्वलित कर लेता है, उसका मन जहाँ कहीं जाता है, वह वहीं समाधि की स्थिति में आ जाता है। जिस मनुष्य को शरीर और आत्मा से संबंधित वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वह किसी भी स्थिति में समाधि की अवस्था प्राप्त कर लेता है।

ईप्सितं मनसः सर्वं कस्य सम्पद्यते सुखम्।

दैवाऽऽयत्तं यतः सर्वं तस्मात् सन्तोषमाश्रयेत् ॥

    सभी प्रकार की इच्छाओं, सुखों की कामनाओं का परित्याग कर दें। सबकुछ ईश्वर के हाथ में है-वह निर्णय करता है, किसे क्या देना है, किससे क्या लेना है। इसलिए सभी को जो है, उसमें संतोष करना सीखना चाहिए।

 कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी।

तथापि सुधयश्चाऽऽर्याः सुविचायैव कुर्वते ॥

     मनुष्य अनेक कामनाएँ करता है; उनमें कुछ पूर्ण होती हैं और कुछ अपूर्ण ही रह जाती हैं। इच्छाओं का पूर्ण होना या न होना मनुष्य के भाग्य और कर्मों पर ही निर्भर करता है। मनुष्य जो कर्म करता है, उसका भाग्य उसी के अनुरूप उसे फल प्रदान करता है। यदि बुरे कर्मों के फलस्वरूप मनुष्य सुखों की कामना करता है तो उसकी इच्छा कभी पूर्ण नहीं हो सकती। इसलिए अच्छे फल की प्राप्ति हेतु मनुष्य को सत्कर्म करने चाहिए।

 यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो गच्छति मातरम्।

तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।।

     सृष्टि का विधान है कि मनुष्य जैसा कर्म करेगा, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। जिस प्रकार बछड़ा सहस्रों गौओं के बीच भी अपनी माता को पहचान लेता है, उसी प्रकार कर्म भी अपने कर्ता को ढूंढ लेते हैं। वस्तुतः मनुष्य का कर्मफल उसके क्रमों के साथ ही बॅंधा होता है। इसलिए सदैव सत्कर्म करें, जिससे श्रेष्ठ फल प्राप्त हो सके।

 अनवस्थितकार्यस्य न जनेन वने सुखम्।

जने दहति संसगों वने सङ्ग विवर्जनम्।।

       जो मनुष्य उद्देश्यरहित होकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उन्हें न तो शांति मिल सकती है और न ही वन में। ऐसे मनुष्यों का जीवन बोझ के समान है, जिनसे किसी को लाभ नहीं होता। इसलिए जीवन में उद्देश्य का होना अत्यंत आवश्यक है। जो मनुष्य जीवन का उद्देश्य निर्धारित कर लेते हैं, उनके जीवन में कभी भटकाव नहीं आता।

 यथा खात्वा खनित्रेण भूतले वारि विन्दति ।

तथा गुरुगता विद्यां शुश्रूपुरधिगच्छति ।।

       इस श्लोक में चाणक्य चाणक्य नीति समर्पण की महत्ता को स्पष्ट कर रहे हैं। वे कहते हैं कि पूर्ण समर्पण द्वारा किया गया कोई भी कार्य निष्फल नहीं जाता। जिस प्रकार खुदाई करनेवाला मनुष्य फावड़े द्वारा अथक परिश्रम करके पृथ्वी के गर्भ में संचित जल प्राप्त करता है, उसी प्रकार विद्यार्थी को भी सेवा द्वारा गुरु के पास संचित ज्ञान को अर्जित करना चाहिए।

 एकाक्षरप्रदातारं यो गुरु नाभिवन्दति।

श्वानयोनिशतं भुक्त्वा चाण्डालेष्वभिजायते ॥

    चाणक्य नीति ‘वेदों एवं पुराणों में ‘ओम्’ को एकाक्षर बीज मंत्र कहा गया है। उसी के महत्त्व को चाणक्य ने उपर्युक्त श्लोक द्वारा व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि बीज मंत्र ओठम् के उच्चारण द्वारा मनुष्य को ब्रह्म से संबंधित तत्त्वज्ञान सहज ही प्राप्त हो जाता है। तत्त्वज्ञान का उपदेश देने वाला व्यक्ति समाज को सही दिशा प्रदान करता है। ऐसे गुरु की सदा वंदना करनी चाहिए। लेकिन जो उनका तिरस्कार करता है, वह मनुष्य कुत्ते की योनि में अनेक कष्ट भोगने के बाद चांडाल -योनि में उत्पन्न होता है।

 युगान्ते प्रचलते पेरुः कल्पान्ते सप्त सागराः।

साधवः प्रतिपन्नार्थान् न चलन्ति कदाचन ।।

      चाणक्य नीति चाणक्य यह स्वीकारते हैं कि युग के अंत में सुमेरु पर्वत अपना स्थान छोड़ देगा, सातों समुद्र अपनी मर्यादाएँ तोड़कर संपूर्ण पृथ्वी को डुबो देंगे। लेकिन उनका यह विश्वास है कि ऐसी विकट स्थिति में भी महापुरुष एवं संतजन अपनी प्रतिज्ञा व संकल्प पर अडिग रहेंगे। ऐसे सज्जन पुरुष विश्वसनीय होते हैं। इन्हीं व्यक्तियों के कारण पृथ्वी अभी तक प्रलय से बची हुई है।

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