आचार्य चाणक्य के 30 अनमोल वचन संस्कृत और हिंदी
आचार्य चाणक्य ने अपने अनुभव, और ज्ञान के आधार पर मनुष्य के जीवन को प्रभावित करने वाली महत्वपूर्ण बातें अपनी नीतिशास्त्र में लिखी है साथ ही चाणक्य ने नीतिशास्त्र में कुछ ऐसी बातों के बारे में भी जिक्र किया है जिन्हें ध्यान में रखकर मनुष्य के जीवन में आने वाली हर कठिनाइयों का सामना आसानी से कर सकता है तो आइये आज के इस भाग में निम्नलिखित श्लोक को देखते हैं :-
प्रणम्य शिरसा विष्णुं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम् । नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीतिसमुच्चयम्॥
भारतीय संस्कृति में ईश्वर की स्तुति से ही शुभ कार्य का आरंभ किया जाता है। आचार्य चाणक्य ने भी पृथ्वी, आकाश एवं पाताल अर्थात् तीनों लोकों के रचयिता, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक परब्रह्म को प्रणाम करके अपने महान ग्रंथ का आरंभ किया। उन्होंने ईश्वर की स्तुति करते हुए कहा-हे ईश्वर! जन-कल्याण हेतु मैं विभिन्न शास्त्रों से एकत्रित यह राजनीतिक नियम सृजित कर रहा हूँ। अतः हे ईश्वर! मुझे शक्ति और आशीर्वाद प्रदान करें।
अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः। धर्मोपदेशविख्यातं कार्याऽकार्य शुभाशुभम् ॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि इस ग्रंथ के अध्ययन, चिंतन और मनन से साधारण मनुष्य भी योग्य-अयोग्य, उचित-अनुचित का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हो जाएगा। इस ग्रंथ के माध्यम से प्राणियों को पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म और कर्तव्य- अकर्तव्य के प्रति सजग करना ही मेरा एकमात्र ध्येय है। इसकी नीतिगत बातों का अनुपालन करके मनुष्य अपने जीवन को प्रकाशित बनाएँ, इसी में इस ग्रंथ की सार्थकता निहित है।
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते ॥
जन-कल्याण हेतु मैं (आचार्य चाणक्य) राजनीति के उन गुप्त रहस्यों का वर्णन कर रहा हूँ, जिसका ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद मनुष्य सर्वज्ञ हो जाएगा। यदि मनुष्य इस शास्त्र के नीतिगत विचारों का अनुसरण – करे तो निस्संदेह सफलता उसके कदम चूमेगी।
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्री भरणेन च। दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति ।।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मूर्ख शिष्यों को उपदेश देने, दुष्ट स्त्री का भरण-पोषण करने अथवा दुःखी व्यक्तियों की संगत से विद्वान् मनुष्य भी कष्ट भोगते हैं। इसलिए बुद्धिहीन व्यक्तियों को कभी भी सत्कार्य के लिए प्रेरित नहीं करना चाहिए। चरित्रहीन स्त्री से दूर रहें, अन्यथा यह बदनामी का कारण बन जाएगी। इसी प्रकार दुःखी व्यक्ति से कभी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। अतः उसकी संगत से बचें।
दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः। ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः।।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि कटु वचन बोलनेवाली स्त्री, पापयुक्त आचरण करनेवाले मित्र तथा विश्वासघाती एवं स्वेच्छाचारी सेवक की संगत करनेवाले मनुष्य के निकट निश्चित ही मृत्यु का वास होता है। ऐसा मनुष्य कभी भी मृत्यु का ग्रास बन सकता है।
आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद्धनैरपि। आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि।।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि वह मनुष्य बुद्धिमान होता है, जो बुरे समय अथवा विपत्तिकाल के लिए धन की बचत करता है। ऐसी बचत की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। इसी प्रकार स्त्री भी धन के समान है, इसलिए उसकी भी रक्षा करें। लेकिन इससे पूर्व मनुष्य को अपनी सुरक्षा के प्रति सतर्क रहना चाहिए। यदि वह स्वयं सुरक्षित है, तभी धन और स्त्री की रक्षा करने में समर्थ होगा।
आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतां कुत आपदः। कदाचिच्चलिते लक्ष्मीः सञ्चितोऽपि विनश्यति ॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि विपत्तिकाल के लिए मनुष्यों को धन का संचय अवश्य करना चाहिए। लेकिन कभी यह न सोचें कि धन के द्वारा विपत्ति को दूर करने में समर्थ हो जाएँगे। चंचलता लक्ष्मी का स्वभाव है, इसलिए वह कहीं भी नहीं ठहरती । यद्यपि धन मनुष्य की बुद्धिमत्ता का परिचायक है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है। कि इससे विपत्तिकाल नष्ट हो जाएगा।
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः। न च विद्याऽऽगमः कश्चित् तं देशं परिवर्जयेत् ॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस स्थान पर मनुष्य का आदर-सम्मान न हो, आजीविका के साधन न हों, अनुकूल मित्र एवं संबंधी न हों, विद्यार्जन के उपयुक्त साधन न हों-ऐसा स्थान सर्वथा अनुपयुक्त है। इसलिए बिना विलंब किए उसे छोड़ देना चाहिए।
धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः। पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत् ॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो स्थान पाँच प्रकार की मूलभूत सुविधाओं-अर्थात् कर्मकांडी ब्राह्मणों, न्यायप्रिय राजा, धनी-संपन्न व्यापारी, जलयुक्त नदियों तथा सुयोग्य चिकित्सकों से रहित हो, वह बुद्धिमान व्यक्ति के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है। उसका उसी क्षण त्याग कर देना चाहिए।
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता ।पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात् तत्र संस्थितिम्॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस स्थान पर निवास करनेवाले मनुष्य लोक-परलोक के प्रति आस्था न रखते हों, जो ईश्वर की महत्ता को अस्वीकार करें, लोक-परलोक का जिन्हें कोई भय न हो, जो परोपकार और दानशीलता से रहित हों, बुद्धिमान मनुष्य को कभी भी ऐसे स्थान पर निवास करने के बारे में नहीं सोचना चाहिए।
जानीयात् प्रेषणे भृत्यान् बान्धवान् व्यसनाऽऽगमे।मित्र चाऽऽपत्तिकालेषु भाय च विभवक्षये ॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि काम के उत्तरदायित्व से सेवकों की, कष्ट अथवा संकट के समय मित्रों की, दु:ख या असाध्य बीमारी में सगे-संबंधियों की तथा धनहीन होने पर स्त्री की परीक्षा होती है।
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रु–संकटे । राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ।।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का सच्चा हितैषी वही है जो बीमारी, अकाल या शत्रु द्वारा कष्ट दिए जाने पर किसी संकट या विषम परिस्थिति में फँस जाने पर तथा मृत्यु के उपरांत श्मशान तक साथ देता हो। अर्थात् सुख या दुःख- दोनों परिस्थितियों में साथ देनेवाला मनुष्य ही सच्चा मित्र कहलाता है।
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिषेवते। ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव च ॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि निश्चित एवं साध्य कर्म को छोड़कर अनिश्चित एवं असाध्य कर्मों की ओर दौड़नेवाला मनुष्य कभी सफल नहीं होता। ऐसी स्थिति में वह दोनों से ही रिक्त हो जाता है। इसलिए जिस कार्य में सफलता निश्चित हो, मनुष्य को केवल वही कार्य करना चाहिए।
वरयेत् कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम्। रूपवतीं न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि कुलीन युवती कुरूप ही क्यों न हो, विद्वान् और बुद्धिमान व्यक्ति के लिए वह श्रेष्ठ होती है। इसलिए उन्हें अपने स्तर की कुलीन युवती से ही विवाह करना चाहिए। इसके विपरीत रूप-सौंदर्य से परिपूर्ण निम्न कुल में जनमी युवती से विवाह करने पर मनुष्य की बुद्धि और विवेक नष्ट हो जाते हैं। ऐसे संबंध क्षणभंगुर होते हैं, इसलिए विद्वानों को इनसे बचना चाहिए।
नखीनां च नदीनां च शृङ्गीणां शस्त्रपाणिनाम् । विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च ॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि तीखे नाखूनोंवाले हिंसक पशु, बड़े सींगवाले पशु, तीव्र वेगवाली नदियाँ, शस्त्रधारी व्यक्ति, स्त्रियाँ तथा राजकुल से संबंधित व्यक्ति विश्वास के योग्य नहीं होते- अर्थात् ये कभी भी विश्वासघात कर सकते हैं। इसलिए मनुष्य को इन पर विश्वास करने से बचना चाहिए।
विषादप्यमृतं ग्राह्यममेध्यादपि काञ्चनम्।भीचादण्युत्तमा विद्या स्त्रीरत्वं दुष्कुलादपि ॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि विष से भी अमृत की प्राप्ति संभव हो तो निस्संकोच उसका सेवन कर लेना चाहिए। इसी तरह अशुद्ध वस्तुओं में से स्वर्ण, निम्न मनुष्य से शिक्षा तथा निम्न कुल से सुसंस्कृत स्त्री-रत्न को विलंब किए बिना स्वीकार कर लेना चाहिए।
स्त्रीणां द्विगुण आहारो बुद्धिस्तासां चतुर्गुणा । साहसं षड्गुणं चैव कामोऽष्टगुण उच्यते ।।
स्त्रियों के बारे में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का आहार दुगुना, लज्जा चौगुनी, साहस छह गुना तथा काम-भाव आठ गुना अधिक होता है।
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत् त्यज।क्षमाऽऽर्जवं दया शौचं सत्यं पीयूषवद् भज ॥
इस श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य ने मोक्ष-प्राप्ति के इच्छुक व्यक्तियों को मुक्ति-मार्ग का उपदेश दिया है। वे कहते हैं कि यदि मनुष्य जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष पाना चाहता है तो उसे काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार आदि विकारों को पूरी तरह से त्याग देना चाहिए। ये विकार मनुष्य के लिए विष-तुल्य हैं। इनके प्रभाव से मनुष्य जीवनपर्यंत मोह-माया में जकड़ा रहता है। इन विकारों की अपेक्षा मनुष्य को क्षमा, सरलता, धैर्य, विनम्रता, ईमानदारी, उदारता, परोपकार, दया, सत्यता, प्रेम और पवित्रता जैसे गुणों को ग्रहण करना चाहिए। इससे मनुष्य समस्त पाप कर्मों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।
परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमाः। त एव विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत् ॥
जो एक-दूसरे के गुप्त रहस्यों को उजागर कर देते हैं, ऐसे व्यक्तियों को आचार्य चाणक्य ने पतित, अधम और दुष्ट कहा है। वे कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति पहले तो एक-दूसरे को अपमानित कर आनंद का अनुभव करते हैं, लेकिन बाद में बाँबी में फँसे सर्प की भाँति उनका नाश हो जाता है। मनुष्य को ऐसे व्यक्तियों से बचकर रहना चाहिए।
गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे नाऽकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य। विद्वान् धनाढ्यश्च नृपश्चिरायुः धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत्॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस प्रकार स्वर्ण में सुगंध, गन्ने में फल तथा चंदन में पुष्प नहीं होते, उसी प्रकार न तो विद्वान् धनी होते हैं और न ही राजा दीर्घायु । सृष्टि के रचयिता को इस विषय में जो उचित लगा, उन्होंने किया। यदि वे उपर्युक्त कार्य भी संपन्न कर देते तो संसार के लिए अति उत्तम होता। परंतु सृष्टि के इस नियम में किसी प्रकार भी परिवर्तन संभव नहीं है।
सर्वौषधीनाममृता प्रधाना सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम्।सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानं सर्वेषु गात्रेषु शिरः प्रधानम्॥
इस श्लोक द्वारा आचार्य चाणक्य कहते हैं कि अमृत के समान पवित्र और जीवन-प्रदायक औषधि कोई दूसरी नहीं है। यह सभी रोगों का नाश करनेवाला होता है। इसलिए औषधियों में अमृत सबसे श्रेष्ठ है। आँखें मनुष्य की सबसे महत्त्वपूर्ण इंद्रियाँ हैं। इनके माध्यम से ही मनुष्य ईश्वर की इस सुंदर रचना को देखने योग्य बनता है। इनके अभाव में जीवन पूर्णतया अंधकारमय हो जाता है। अतः आचार्य चाणक्य ने आँखों को सभी इंद्रियों में उत्तम कहा है। इसी प्रकार मस्तिष्क मानव शरीर को नियंत्रित करता है। उसके बिना शरीर व्यर्थ होता है।
दूतो न सञ्चरति खे न चलेच्च वार्ता पूर्वं न जल्पितमिदं न च सङ्गमोऽस्ति।
व्योम्नि स्थितं रविशशिग्रहणं प्रशस्तं जानाति यो द्विजवरः स कथं न विद्वान्॥
आचार्य चाणक्य की दृष्टि में सूर्य एवं चंद्रग्रहण के विषय में पता लगाने वाले भी विद्वान् कहलाते हैं। इसके लिए न तो उन्होंने किसी दूत को आसमान में भेजा और न ही इस संदर्भ में किसी के साथ वार्त्तालाप किया। उन्होंने पृथ्वी पर रहते हुए ही अंतरिक्ष के इन तथ्यों का अध्ययन कर उनका विश्लेषण किया और समस्त जानकारी प्राप्त की। इससे यही स्पष्ट होता है कि विद्वान् व्यक्ति बिना कुछ कहे ही सामनेवाले के अंतर्भावों को भलीभाँति जान-समझ लेते हैं। उनकी बौद्धिकता और विद्वत्ता के समक्ष कुछ भी रहस्यमय नहीं रहता ।
विद्यार्थी सेवकः पान्थः क्षुधाऽऽर्तो भयकातरः। भाण्डारी प्रतीहारी च सप्त सुप्तान् प्रबोधयेत्॥
विद्यार्थी, सेवक, पथिक, भूख से पीड़ित, भयग्रस्त, भांडारी और द्वारपाल – इन सातों का कार्य जागने से ही संपन्न होता है। इसलिए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि ये सोते हुए मिलें तो इन्हें जगा देना चाहिए। जगाने पर विद्यार्थी अपना अध्ययन पूर्ण कर सकते हैं तथा सेवक अपने कार्यों को समयानुसार संपन्न करेगा। इसी प्रकार जगाने पर जहाँ पथिक के धन की रक्षा होगी, वहीं वह शीघ्र अपनी मंजिल तक पहुँच जाएगा। भूख से पीड़ित को जगाकर भोजन करवा दें तथा भयग्रस्त को आश्वस्त करें। भांडारी का कर्तव्य भंडार-घर की रक्षा करना तथा द्वारपाल का कार्य जागकर घर की पहरेदारी करना है । इनके सो जाने पर चोर-
डाकुओं का बोलबाला हो जाएगा। इसलिए इन्हें भी जगा देना चाहिए।
अहिं नृपं च शार्दूलं किटिं च बालकं तथा। परश्वानं च मूर्ख च सुप्त सुप्तान् न बोधयेत्॥
आचार्य चाणक्य कुछ प्राणियों को जगाने से मना करते हैं। वे कहते हैं कि सर्प, राजा, सिंह, शूकर, बालक, मूर्ख, मधुमक्खी तथा दूसरे के कुत्ते को कभी नहीं जगाना चाहिए, अन्यथा व्यक्ति को भयंकर कष्ट उठाना पड़ सकता है। इन प्राणियों का सोए रहना ही उत्तम है।
अर्थाऽधीताश्च यैर्वेदास्तथा शूद्रान्नभोजिनाः। ते द्विजाः किं करिष्यन्ति निर्विषा इव पन्नगाः ॥
आचार्य चाणक्य ने विद्या द्वारा धन अर्जित करनेवाले ब्राह्मण को समाज के लिए व्यर्थ बताया है। वे कहते हैं कि जो ब्राह्मण अपनी विद्या का प्रयोग केवल धन प्राप्ति के लिए करता है, समाज में उसका होना या न होना एक बराबर होता है। संसार में उसकी विद्वत्ता एवं ज्ञान का प्रसार कभी नहीं होता। ऐसे ब्राह्मण का एकमात्र उद्देश्य धनार्जन ही होता है।
यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनाऽऽगमः। निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिसके क्रोध से कोई भयभीत न हो तथा जिसके प्रसन्न होने से भी किसी को कोई लाभ नहीं होता, ऐसे मनुष्य का आचरण किसी को प्रभावित नहीं कर सकता। ऐसे मनुष्य से न तो दया की आशा करनी चाहिए और न ही किसी प्रकार की कृपा की। यह मनुष्य केवल अपने लिए ही जीता है, दूसरों से इसे कोई मतलब नहीं होता।
निर्विषेणाऽपि सर्पेण कर्तव्या महती फणा। विषमस्तु न चाप्यस्तु घटाटोपो भयङ्करः॥
आचार्य चाणक्य ने अपनी कूटनीतिज्ञता का प्रभाव छोड़ा है। वे बल एवं प्रभाव के आडंबर को उचित मानते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार विषैला न होने पर भी सर्प के उठे हुए फन को देखकर लोग भयभीत हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रभावहीन व्यक्ति को भी आडंबर द्वारा समाज में अपना प्रभाव बनाकर रखना चाहिए। जैसे विषहीन सर्प की वास्तविकता लोग नहीं जानते, वैसे ही आडंबरयुक्त प्रभाव से लोग भयभीत रहते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति कभी लोगों की उपेक्षा का पात्र नहीं बनता ।